बाजू में बंधी कुछ दुआएं
और हाथों में झूलती
कुछ उलझी हुयी सी
रंग बिरंगी कश्मकसें
कुछ कह रही थी आज,
बना रही यही
अपने अतीत की तस्वीरें
वर्तमान के केनवाश पर.
लाइने खिचने लगी
और बनगया
एक स्टोर रूम,
जिसमें थे नक्कासी किये
यादों के संदूक,
उजले-उजले से
कुछ आईने और
सुर्ख सफ़ेद पोशाकें.
वो बतियाती खिलखिलाती
और बस खो जाती
जैसे फरिश्तों के देश मे
एक नन्ही परी,
वो कमरा जैसे कमरा नहीं
एक सपनों की दुनिया हो
उजली सी,
वक्त गुजरा
देश छूटा
रूह से ज़ुदा हो गयी ज़िन्दगी,
बड़े-बड़े खुले से वीराने ;
ढूढने लगी अपनी ही पहचान,
ना कोई आइना, न कोई संदूक
बस मीलों दूर
सफ़ेद ही सफ़ेद
बिखरे हुए शून्य.
समय की सुई फिर आयी
अपनी जगह
लगा जैसे नया युग
फिर शुरू हुआ है,
ढूढने लगी उन नाजुक
नक्काशी भरे पलों को
की तभी पहचान लिया
किसी ने उसे
थामे हाथों में
कुछ बीते दिनों के
जिंदा एहसास.
वो मिली उससे तो
महक गया
एक आइना अतीत का
और खुलगया एक संदूक
एहसासों का,
जैसे सुबह की की दहलीज़ पर
सूरज की पहली किरण
जैसे पहली बारिश मे
भीगा बदन.
वो आज भी ढूढती है
उन बंद दरवाजों मे
घूमते फ़रिश्ते,
वो आज भी कैद है
उन चार दीवारों मे
बतियायी हुई सी.
जिस्म जवाँ होगया है मगर,
मन अभी भी है मुन्नी सा…
July 21st, 2009 at 3:03 pm
Amazing written… love the way you wrote this post. Its simple and concise but truly something to think about. Nice one!
July 21st, 2009 at 3:55 pm
कापी लम्बे अर्से के बाद, यतीश, तुम्हारी कोई रचना दिखी. दो बार पढा. अच्छा लगा. लगता है कि दो बार में इसको आत्मसात करना आसान नहीं है.
सस्नेह — शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
July 21st, 2009 at 6:07 pm
bahut hi sundar kawitaa
July 27th, 2009 at 9:55 pm
Isse aur kya kahein… har jawani aur budhape ka ek bachpan hota hai… magar koi nahin yaad rakhta jawani aur budhape ko… yaad reh jaata hai tau bas woh bachpan… Shayad kutch is “Munni” ke jaisa hi hoga hum sab ka Sharir… tan se bada magar man se bachha.. Bas ise ehsaas ko salam… jo tumne is kavita mein dikhaya hai… Nice One !