आज मन ले गया कुछ नयी किताबों के बीच,
जहाँ नए सिद्धांतों के अम्बार लगे थे,
जो कह रहे थे नए ज़माने में सफल होने की तरकीबें .
एक पन्ना कह रहा था
बॉस पर विश्वास मत करो
वह कभी आपको आगे नही पहुँचायेगा
एक पन्ना कह रहा था
अपने हुनर का ज्यादा प्रदर्शन मत करो
छोटे बड़े सबको जलन होती है
एक पन्ना कह रहा था
लोगों को अपने ऊपर निर्भर बनाओ,
दूसरों के दिलो दिमाग पर काम करो,
दोस्तों पर विश्वास कभी मत करो,
अपने दुश्मन को जड़ से उखाड़ फेको.
लगा जैसे ये सब तो मै देख चुका हूँ,
पिछ्ले कुछ सालों में अपने आस-पास.
अब दिमाग चकरा गया ,
मेरे गुरुओं ने शिक्षा दी थी
चीजों को इतना आसान कर दो
कि कोई भी कह उठे
अरे यह तो मै भी कर लेता
किसी को मत काटो
बड़ा बनाना है तो
किसी लाइन के साथ बड़ी लाइन खीच दो
काम को सहज करो
अपना विचार दूसरों का बनादो,
लोगों को प्रोत्साहित करो.
अब असमंजस मै हूँ
किसे मानू इस गिरगिट की तरह
रंग बदलती दुनिया मे,
जहाँ कमेटमेन्ट नाम की
कोई चीज नही है
फ़िर वो कोई छोटे ओहदे वाला करे
या बड़े ओहदे वाला.
September 20th, 2008 at 6:09 am
यतीश साहेब
येही जिंदगी है…दुशवारिया,,ठोकर,,शिकस्त और सफ़र….!!!
मेरी लिखी एक ग़ज़ल के कुछ शेर याद आ गए जो तुम्हारी कविता के सावालों के शायद जवाब बन सके….
दुशवारियों से आजमाइश का सिलसिला रहे
हर ठोकर से सीने मैं बढ़ता हौसला रहे
रुकता नहीं है वक़्त कभी किसी के इंतज़ार को
जानिब-ए-मंजिल बढ़ता तेरा काफिला रहा.
नजदीकियां गर बढे तो उलझने का है खतरा
रिश्तों के दरमियान भी जरा फासला रहे
….बहरहाल आपकी उलझाने कलम के जरिये कागज़ पर नज़र आती है ..इसपर कविता निहायत सुलझी हुई और खुबसूरत है .नाचीज़ की दाद कुबूल फरमायें.
-Manoj Kureel
September 20th, 2008 at 11:01 am
Bahut hi sunder hua hai
dada
September 25th, 2008 at 6:33 am
Yatish ji aaj aapki ye wesite bhi dekhi bhaut pasand aayi
aur aapki kavitan ne sahaj ji apni jagah bana li
aapke vicharon se bhaut prabhavit hokar jaa rahi hoon
magar ab aana hota rahega
aapko padhna jaisa khud ki soch ko padhna laga
likhte rahe