चित्र: नमन, देवीप्रसाद
एक माटी
एक कुम्हार
एक रचना
एक रचनाकार,
वक्त की धुरी पे घूमे
न जाने कितनी बार
ना कोई पड़ाव
ना कोई ठहराव
चलता गया
करता रहा सृजन.
सकोरे मे न समाजाये
बना शिल्पकार
दिया कई कुम्हारों को आकार
आज भी अपनी धुरी पे
ना है थमने को तैयार.
एक सृजन को
एक धुरी को
एक चाक को
नमन है नमन है नमन है
बार बार ….
वक्त की गागर में
जीवन के रंग घुल गए
हर तरफ
पंकज ही पंकज खिल गए.
एक दिन एक झौका आया
सब रंग धुल गए .
दिनरात एक हो गया;
आसमा काला
और कल्पना फिर हुई नयी
पंकज चाँद हो गया…
दोस्तों कल एक painting exhibition देखी और पढ़ा एक कलाकार के बारे में. 26/11 के हादसे में उनका मीत उनसे बिछड़ गया. जिंदगी थमती नहीं, वो फिर आगे बड़ी, चित्रकार बनी. ये जो भी मैंने कहा सब उनका है, पेटिंग भी उन्ही की है नाम है कल्पना शाह
“जिंदगी”
एक है जो बड़ रही है;
“उम्र”
एक जो बन रहे है; बिगड़ रहे है;
“रिश्ते”
एक है जो चल रहा है;
“वक़्त”
जिंदगी, उम्र, रिश्ते, वक़्त,
सब ताने-बाने है।
वो जो एक है ;
वो हम है।
जो हमेशा
एक और अकेले ही
रुखसत होंगे।
सब कहते है
अच्छा काम करो,
कुछ नया सोचो,
एक मिशाल कायम करो.
बोस भी कुछ यही कहता है,
आप क्या बेहतर कर सकते हो…
पर
कुछ करने चलो
तो वही ढाक के तीन पात.
अच्छा करने को
प्रेरित करने वाले ही
दीवार बन जाते है,
मिशाल; मिशाइल की तरह
दिल को भेदती है और
एक गुबार उठता है,
एक आवाज आती है,
सब बातें किताबी है
और किताब बिकती है ,
बातों का क्या
बतियाते रहो…