सब कहते है
अच्छा काम करो,
कुछ नया सोचो,
एक मिशाल कायम करो.
बोस भी कुछ यही कहता है,
आप क्या बेहतर कर सकते हो…
पर
कुछ करने चलो
तो वही ढाक के तीन पात.
अच्छा करने को
प्रेरित करने वाले ही
दीवार बन जाते है,
मिशाल; मिशाइल की तरह
दिल को भेदती है और
एक गुबार उठता है,
एक आवाज आती है,
सब बातें किताबी है
और किताब बिकती है ,
बातों का क्या
बतियाते रहो…

लगता था
किसी की अंगुली पकड़कर
चल रहा हूँ.
रौशनी में आया
तो पता चला
की वो अंगुली नहीं
कुछ और था
और जिसे मै
पकड़ना समझ रहा था
दरअसल वो
पल पल का छूटना था;
उनसे
जिनसे मै जुड़ा हुआ था,
जुड़ा रहना चाहता था,
हमेशा ….


बाजू में बंधी कुछ दुआएं
और हाथों में झूलती
कुछ उलझी हुयी सी
रंग बिरंगी कश्मकसें
कुछ कह रही थी आज,
बना रही यही
अपने अतीत की तस्वीरें
वर्तमान के केनवाश पर.
लाइने खिचने लगी
और बनगया
एक स्टोर रूम,
जिसमें थे नक्कासी किये
यादों के संदूक,
उजले-उजले से
कुछ आईने और
सुर्ख सफ़ेद पोशाकें.
वो बतियाती खिलखिलाती
और बस खो जाती
जैसे फरिश्तों के देश मे
एक नन्ही परी,
वो कमरा जैसे कमरा नहीं
एक सपनों की दुनिया हो
उजली सी,
वक्त गुजरा
देश छूटा
रूह से ज़ुदा हो गयी ज़िन्दगी,
बड़े-बड़े खुले से वीराने ;
ढूढने लगी अपनी ही पहचान,
ना कोई आइना, न कोई संदूक
बस मीलों दूर
सफ़ेद ही सफ़ेद
बिखरे हुए शून्य.
समय की सुई फिर आयी
अपनी जगह
लगा जैसे नया युग
फिर शुरू हुआ है,
ढूढने लगी उन नाजुक
नक्काशी भरे पलों को
की तभी पहचान लिया
किसी ने उसे
थामे हाथों में
कुछ बीते दिनों के
जिंदा एहसास.
वो मिली उससे तो
महक गया
एक आइना अतीत का
और खुलगया एक संदूक
एहसासों का,
जैसे सुबह की की दहलीज़ पर
सूरज की पहली किरण
जैसे पहली बारिश मे
भीगा बदन.
वो आज भी ढूढती है
उन बंद दरवाजों मे
घूमते फ़रिश्ते,
वो आज भी कैद है
उन चार दीवारों मे
बतियायी हुई सी.
जिस्म जवाँ होगया है मगर,
मन अभी भी है मुन्नी सा…
आज हुई एक मुलाकात
कुछ-कुछ जाने पहचाने से,
बहुत सीनियर दिखते थे वो
बिजी थे,
कुछ बातें हुई
जाना एक दूसरे को
फिट उम्र पूछी उन्होंने मेरी
और तपाक से बोले
तुम मुझसे ४ महीने बड़े हो,
मै कुछ समझ नही पाया क्या कहूँ
सामने एक तजुर्बेकार
ज्यादा उम्र का दिखने वाला
एक इंसान बड़ी ही
आत्मीयता से
मुझसे बोल रहा था,
मै उनकी बातें
एक उम्मीद की तरह
सुन रहा था
और सोच रहा था
क्या होता है
बड़ा – छोटा
अपने अपने दरवाजों के पीछे
सब बड़े है,
सब बड़े है अपने अपने
दायरों में …

धीरे धीरे वक्त गुज़रेगा,
इल्जामातों के दौर चलेंगे ,
एक दूसरे पर आरोप लगेंगे,
पब्लिक की प्रतिक्रिया होगी,
देश विदेश में सलाह मशवरा होगा,
राजनीती को एक और
मुद्दा मिल जायेगा,
समाचार कंपनियों को
कई दिनों के लिए
मसाला मिल जायेगा,
कुछ NGO का
काम बड़ जाएगा,
पूरी दुनिया
सबूतों और सुझावों का
बहुत बड़ा
आकड़ा तैयार करेगी,
बुद्धिजीवी बड़ी बड़ी
बहस करेंगे,
कानून और संविधान
में बदलाव होंगे,
कई नए घोटालों के लिए
बजट बनेंगे
सब लोग अपनी तरह से
अपनी रोटियां सकेंगे.
बस एक चीज है जो लोग
खुली आँख से भी
नही देखेंगे.
वों जो विश्व पर कलंक है,
जिसका किसी मज़हब में,
किसी शिक्षा मे
किसी संस्कार मे
किसी भी रूप मे
कोई स्थान नही है.
आतंकवाद
क्या फायदा पड़े लिखे होने का
६०० साल पहले किसी ने सही कहा है.
पोथी पढ-पढ जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय…







