कभी अजनबी सी कभी जानी पेहचानी सी, ज़िंदगी रोज़ मिलती है क़तरा-क़तरा…
चला था सफर में सोचा कर की सुरक्षित हूँ ,
मेरी सुरक्षा कहा कहाँ खर्च हो गयी पता ही न चला।
रिस्क पहले दिन से ही मेरे साथ थी घूघट में,
आज घूघट उठा दिया रिस्क से
बना लिया उसे अपना,
तो रिस्क ही बनगई सुरक्षित हमसफ़र
क़तरा-क़तरा …
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