कभी अजनबी सी कभी जानी पेहचानी सी, ज़िंदगी रोज़ मिलती है क़तरा-क़तरा…
कविता के तुम भाई हो लेखों के तुम साँई हो, गर खड़े हो गए मंच पर तो समारोह के नाई हो। वाद विवाद की दाई हो ज्ञान का सागर हो कला की गागर हो।
नाम तुम्हारा है कैलाश वाणी मैं है मिश्री का वास, एक बार जब मिले किसी से बना देते वो लम्हा खास।
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