May 28
ऊचाई पे पहुचने पे
नीचे कुछ नहीं दिखता,
सिर्फ गहरे घने साये रह जाते है.
जिसमे दफ़्न हो जाते है सारे अतीत,
रौशनी आती जाती रहती है कभी-कभी
जो छेड़ देती है कुछ अहसासों को,
मुरझाती सी
मुस्कराती सी.
ऊचाइयाँ भी खुश
गहराइयाँ भी खुश
बस यही चलता है
ज़िन्दगी भर
क़तरा-क़तरा…
May 28th, 2010 at 11:01 am
Roshni to sada Positive part ki aur le ke jaati hai (Murjhati si ko link kar sakte ho ateet ki Tadapti Yaadon ke saath)
May 31st, 2010 at 7:30 am
nice poem yatish